Humanities Underground

“सच्ची कला चक्कर में डालती है”: An Exchange with Shiv Prasad Joshi

The poet and the essayist Shiv Prasad Joshi has recently written an essay in Pahal about the wellsprings of writing (http://pahalpatrika.com/frontcover/getrecord/321), on the question of holding a perspective and on modes of enunciation. In the essay he has placed front and centre certain ways and tendencies by which art can speak to its audience with honesty and purpose, especially in a time that is uncertain and fuzzy.  This conversation with him arises out the concerns he expresses in the essay. _________ Dear Shiv-ji, Namaste. It was really nice to converse with you today. Once again, let me tell you how much I enjoyed your most perceptive observations in Pahal, a collage of thoughts with certain very important threads weaved within. Let me begin by commenting on the very title of the essay: कौन किस सतह से बोलता है. The word ‘satah’ immediately will remind your readers of Muktibodh for obvious reasons.  But as we read the essay, it seems to me that ‘satah’ is used in dual senses and sometimes they fuse. One, in the sense of a vantage point, or a level; a sense of understanding and comprehending not only our times but also a sense of having courage (“क्योंकि सुखी नालियां बची रह गयी है और सहस सतह पर आकर किसी गेंद की तरह टप्पे खाता रहता है”). So, the position one takes in life and forms perspective is a matter of a keen sense of perception; but it has also to do with courage and forthrightness, to say things that need to be said.  The other meaning of ‘satah’ which I got is a powerful sense of the aesthetic ( musical value, rhythmic quality of life and living). Also perhaps to have a sharp awareness of the uncanny, dark, and convoluted things that lurk in our midst? Your initial choices of Kundera, Kafka and Hemingway show that to me. All three are remarkably honest with life and not afraid to relate the aesthetic to the difficult encounters of life. Also, all of them are highly imaginative artists, needless to say. kalpana and vastvikta (yatharth) must be represented as real, as they do in their art. The fusion becomes too real, ‘the underlying real’ for the reader–as you say later. This you also call: रचना का संघर्ष—the struggle of the composition. Am I thinking on the right track? Best, Prasanta *** नमस्ते प्रशांतो जी, मुझे आपके नाम का उच्चारण कैसे करना चाहिए. ये ठीक से समझ नही आ रहा है इसलिए प्लीज़ गुस्ताख़ी माफ़ करिएगा. आपने इस लेख को सराहा. बहुत ध्यान से और बहुत करीने से पढ़ा. मैं इस बात से अभिभूत तो ही हूं और ये मेरे लिए हार्दिक संतोष की बात भी है लेकिन इससे बढ़कर मैं इस बात का कायल हूं कि आपकी रीडिंग कितनी सूक्ष्म और मर्म तक जाने वाली है. गद्य का ऐसा विलक्षण पाठ बहुत कम दिखता है. ख़ैर.. फिलहाल तो दो चार बाते हैं. जो आपके मेल के जवाब में तो नहीं हैं लेकिन इस लेख के पीछे दो चार चीजें हैं- एक सांगीतिक मूल्य, दूसरी एस्थेटिक इन्टेंशन, और तीसरी वेटलेसनेस, भारहीनता और एक और चीज़ है वो है आख़िर रचना क्यों. वहीं से शुरू होती है बात. ये कोई क्रम नहीं है और इनके साथ अन्य राईटिंग मूल्य भी जुड़े हुए हैैं. मैं ये भी बताना चाहता था कि हम अभी बहुत अच्छे पाठक बनने से बहुत दूर हैं. हिंदी के संबंध में ख़ासतौर पर. और पाठक ही नहीं, एक अच्छे दर्शक, श्रोता के रूप में भी हमें विकसित होना चाहिए. हिंदी में देखता हूं कि एक दीवार से दूसरी दीवार तक आना जाना रहता है. हम टकरा रहे हैं, ये भी हमें नहीं दिखता, महसूस तो क्या करेंगे. बेशक अंग्रेजी भाषा के पास हैरी  पॉटर  का नैरेटिव है लेकिन हिंदी ने तो अपने लिए वो गनीमत भी नहीं बनायी है. मिसाल के लिए हमारे यहां  जो सत्यजित राय का रचना संसार है, इतनी विपुल संपदा. संगीत, कथा, सिनेमा, चित्र. वो आज कहां है किसके पास है. और हिंदी इन नायकों के पास जाने से कतराती है.  मुक्तिबोध ये कोशिश कर रहे थे, उन्होंने किसी वजह से ही गुरू रवीन्द्र का नाम लिया था. रघुबीर सहाय के पास ऐसी कोशिशें थीं. जो उनके बाद असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल में नज़र आयीं. विष्णु खरे, विनोदकुमार शुक्ल और वीरेन डंगवाल के यहां भी वे चीज़ें बेशक देखी जा सकती हैं. आज की चुनिंदा कवयित्रियों और कवियों में भी वे पोएटिक सतहें हैं. असल में कला बहुत नीचे बैठी रहती है.  न दिखना और धूमिल रह जाना उसका एक ख़ास लक्षण रहा है. ये एक ऐसी सतह है जो मैं समझना चाहता हूं. सच्ची आवाज़ें वहीं से आती हैं. लेकिन वे कितनी कम है प्रशांतो जी. और कितनी दूर से आती हुई…धुंधली सी…! हो सकता है ये बातें आगे पुनर्विचार की मांग भी करें. फिलहाल मैं अभी  इस पर इतना ही कहूंगा और अगले कुछ रोज़ में आपको थोड़ा और विस्तार से लिखने की कोशिश करूंगा. थैंक्स. अपना ख़्याल रखिएगा. सादर शिव *** Dear Shiv-ji, Prashanto, as you say, is fine. So, do not worry about it. Thank you for the links and the updated version of your essay. I am reading all of them with interest. Thanks also for illuminating the latent and underlying sources from which the concerns about art and politics arise. I could see one of your prime concerns is to address the fundamental issue about the act of writing itself; the urge to record and create. From your previous response, the nature of the quest becomes even clearer. I would like to know more about the term ‘weightlessness’ though in the context of the quest. This sense of restiveness binds the two of us. The inability to fathom the cacophony that surrounds us and these blurry and often clever moves by our interlocutors disturb us. This relentless urge to remain relevant, the fear of being forgotten that marks our time cannot be explained in terms of mere self -consciousness and acute narcissism. Its corrosive power eats the soul. It destroys all relationalities by constantly disguising the sources of our own selves–what you call धूमिल रह जाना. Are we also not implicated in ushering