A Whiff and a Whistle
HUG Speaks to Monika Kumar on her poem छुट्टियों में पेड़ों को भूल जाओ (During Absences, Abandon the Trees) ___________________________ During Absences, Abandon the Trees Up on the first floor of the building As soon as I reach my office Tall trees I begin to touch. No sooner do I touch them, I think I must keep my brain calm After all, we have not come to this world To feel good or bad about what people say Still, every month, a day comes When I try to open my office door with my house-keys It entirely depends, how much during those days, I am pinned and pegged Meshed and merged in the world After a break of three days Morning, and I enter my office Looking at the trees It comes to my mind During the break Not for once did I remember these trees The kadamb trees, one look at them And one feels there should be a limit to beauty, Had forgotten me I do not recall these trees during long absences Still it comforts me to think that they are, In changing climate, in deep attachment Greedy to swing on the edges of a breeze Frantic so, so rapt So still, restless so My trees informed me It is good to forget beauty Not to recall them during breaks Until the edge of untruth To come back and entreat love To touch again and again And say How could I stay away from you so long? To do significant things we have come to this world It is also an important task To lose oneself in the world Feel good and bad about what people say Destroy one’s solitariness So that one can rue later And practice imploration with the trees For their constancy छुट्टियों में पेड़ों को भूल जाओ ईमारत के प्रथम तल पर बने अपने दफ्तर में पहुँचते ही ऊंचे पेड़ों का स्पर्श करती हूँ इन्हें छूते ही विचार आता है मुझे दिमाग को ठंडा रखना चाहिए आखिर हम दुनिया में बातों का अच्छा बुरा मानने नहीं आए हैं फिर भी माहवार ऐसे दिन आते हैं जब घर की चाभी से दफ्तर का ताला खोलने की कोशिश करती हूँ निर्भर करता है उन दिनों मैं कितना मिली जुली कैसे घुली मिली दुनिया में तीन दिन के अवकाश के बाद मैं सुबह दफ्तर आई पेड़ों को देखकर ख़याल आया इन छुट्टियों में मुझे एक बार भी इन पेड़ों की याद नहीं आई कदंब के फूल जिन्हें देखकर लगता है इतना सुन्दर भी न हुआ करे कोई मुझे भूल गए थे मुझे नहीं आते याद ये पेड़ लंबी छुट्टियों में फिर भी यहाँ लौट कर तस्सली करती हूँ कि वे हैं बदलते मौसम के साथ गहरे प्रेम में हवा के एक झोंके पर झूलने के लिए आतुर इतने कातर इतने भावुक जितने स्थिर उतने आकुल मेरे पेड़ों ने कहा मुझसे अच्छा है सुन्दरता को भूल जाना छुट्टियों में उसे याद न करना झूठा लगने की हद तक लौट कर प्रेम जताना बार बार छूना और कहना कैसे रही मैं इतने दिन तुमसे दूर दुनिया में बहुत काम करने आए हैं हम उस में यह भी ज़रूरी काम है दुनिया में खो जाना लोगो की बातों का अच्छा बुरा मानना नष्ट करना अपने एकांत को बाद में पछतावे के लिए और विनय करना पेड़ों से इसकी बहाली के लिए ___________________ Prasanta: Let me begin by referring to an entangled contrast that the poem builds up, by emphasizing a simultaneous and double hankering on our part—of a need to be part of this world and also practice a peculiar untying and disengagement. What is unfolding here? Say, at the level of craft itself—this detached entanglement is brought sharply to us by a repetition and a reversal. After all, we have not come to this world To feel good or bad about what people say आखिर हम दुनिया में बातों का अच्छा बुरा मानने नहीं आए हैं 2. To do significant things we have come to this world It is also an important task To lose oneself in the world Feel good and bad about what people say दुनिया में बहुत काम करने आए हैं हम उस में यह भी ज़रूरी काम है दुनिया में खो जाना लोगो की बातों का अच्छा बुरा मानना We are simultaneously left to sense an ambivalent feeling, which is also at the heart of the poem; a certain mood and a thought develop. What should be the ‘self’s’ relationship to our belonging, our worldliness buffeted by its constant inbound turnings? Monika: इसे किसी औपचारिक संवाद का हिस्सा बनाने के लिए नहीं लेकिन आपने कविता से जो एक थीम निकाला है, उस पर मैं कुछ और कहना चाहती हूँ. सच तो यह है प्रशांत कि न केवल हमारे दुनिया से संबंध कैसा हो, जिंदगी की अधिकतर चीज़ों को निरंतर सर्वेक्षण करते हुए मेरा मन ambivalent हो जाता है आखिर कार. मुझे पता है इस तरह की अप्रोच से नॉन-क्मिटल की अवस्था भी आती है जो अंतत न्याय और सत्य के प्रश्न को अच्छे से अड्रैस नहीं कर पाती. यह उत्तराधुनिक्वाद की आलोचना भी है. पिछले दिनों मैं दलित साहित्य पढ़ रही थी, रोना आ रहा था वे कहानियां और कवितायेँ पढ़ कर हालाँकि उस साहित्य में आप मुख्धारा साहित्य की अपेक्षा लेकर रसास्वादन के लिए नहीं जा सकते, लेकिन यही उस साहित्य का ध्येय है की वह आपका उस आसपास घटित हो रहे जीवन से परिचय कराए जिसमें षड्यंत्र से किसी रस की गुंजाईश नहीं छोड़ी गई. पिछले कुछ वर्षों से मैं जातिवादी समाज की बदसूरती को और करीब से देखने की कोशिश कर रही हूँ जबकि दलित चिन्तक शायद ठीक कहते हैं कि इसे मैं केवल एक आउटसाइडर की तरह ही समझ सकती हूँ. मैं इस बारे में इलैक्ट्रोन मात्र भी ambivalent नहीं हूँ कि यह गलत, अन्यायपूर्ण और शर्मनाक है. मैक्रो और मैक्रो किसी भी स्तर से देखने से यह मुझे बेहद शर्मनाक लगता है. अपने घर और क्लास में मैं कोशिश करती हूँ