Gathering Shadows, Shamsher Bahadur Singh
Lakshmidhar Malviya (Gathering Shadows, Shamsher Bahadur Singh. Years covered: 1961-1975) __________________________________________________ ईमान गड़बड़ी में है दिल के हिसाब में लिक्खा हुआ कुछ और मिला है किताब में (Top Floor, Just Fit, 1961) *** कठिन प्रस्तर में अगिन सूराख। मौन पर्तों में हिला मैं कीट। (Shamsher, the tenant, peeping: barsati above Just Fit Tailors, Allahabad, 1961] *** आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद (Just Fit Tailors, Bahadurganj, Allahabad, 1961 ) *** उसे बदलियों में भी पहचान लोगे कि उस चांद-से मुँह पे’ हाला पड़ा पड़ा है वो जुल्फ़ों में सब कुछ छुपाए हुए हैं अंधेरा लपेटे उजाला पड़ा है (Premlata Verma and Shamsher, 1961) *** मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार – जिसके स्वर गीले हो गये हैं, छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है… छप् छप् छप्व (Neighbourhood, Just Fit, 1961) *** तू मेरे एकान्त का एकान्त है मैं समझता था कि मेरा तू नहीं । (Shamsher, Sketch : Malayaj, 1961) *** जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद वही शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद (Allahabad, 1962) *** सूरज उगाया जाता फूलों में: यदि हम एक साथ हँस पड़ते। (With Shrimati and Shri Naresh Mehta, their year old son Babul, an unnamed person and Shamsher, 1961) *** वरूणा के किनारे एक चक्रस्तूप है शायद वहीं विश्व का केंद्र है वहीं कहीं ऐसा सुनते हैं। (Sarnath: the dharmshala where Shamsher often lived during the first half of the 1960s) *** मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल जीवन; कण-समूह में हूँ मैं केवल एक कण । (Delhi, 1971) *** दिल्ली बस-स्टैंड से ही कार्ड मिला था मुझको। काश फिर लिखते – ‘वही है जो गिला था मुझको1।’ ताकि हम कहते कि ‘है जुल्म सरासर अब तो!’ (Delhi, 1971) *** काल, तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू- तुझमें अपराजित मैं वास करूं । (Delhi, 1961) *** कहाँ है वो किताबें, दीवारें, चेहरे, वो बादलों की इन्द्रधनुषाकार लहरीली लाल हँसियाँ कहाँ है ? (Delhi 1971) *** हम अपने खयाल को सनम समझे थे, अपने को खयाल से भी कम समझे थे! होना था- समझना न था कुछ भी, शमशेर, होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे! (Delhi, 1971) *** वाम वाम वाम दिशा, समय साम्यवादी। (With dear friend Mugisuddin Faridi and Shobha Singh, Delhi 1971) *** एक नीला आईना बेठोस-सी यह चाँदनी और अंदर चल रहा हूँ मैं उसी के महातल के मौन में । (Delhi, 1975) *** [This set of photographs were first published in Jalsa, 2011. HUG is grateful to Asad Zaidi for making the volume available.] adminhumanitiesunderground.org