Shubham Shree
Comrade I
right through the evening, samosas wolfed
pakoras, bread rolls gobbled
a million cups of tea guzzled
marking time for those mess bells
at the age of 28, measuring the mirror
those piercing eyes.
a few grey hairs, ailing father and some relatives
mother’s absurd clamour for a studio-photograph
home
a door bolted.
in my eyes
you smiled
a fist stretched
a fiery slogan
a poster, off-colour, on the wall
a kurta trailing thread
chappal-straps unpinning
polycystic ovarian syndrome.
quietly you are that too.
life unspools, thus
dreaming politbureau
chores for the mahila-morcha
hawking manifestos at seminars
or out on streets, baton-beaten
some days in remand
making it to the newspapers
but in the room, the pillow that remains drenched
malodorous
where do I report that, comrade?
***
Comrade II
that pole 20 centimetres by the tape and his body
are matched evenly
at 30, a loosely hanging shirt, remnant of the early nineties
and the denim, a gift from the archaeology department
even after the last drag on the circulating cigarette
if that parantha remains elusive
then a fit of laughter is fine.
MA second division whole-timer
used to be a mental patient
until last month
his party membership an inheritance from a dead father
chuckling, nonchalant
this comrade,
knows all about the world
but not about his home inundated by last night’s flood.
for a fortnight, his cellphone balance =zero!
***
About That Boy
with three days of stubble
every guy looks hot
(that is what I believe)
and if, instead of the gym,
for a week he is hospital interned
then his eyes turn philosophic
yellow and melancholic
burning and lifeless
unsalted laughter, shriveled smile
walking but to tire
on a fulsome evening, shawl-wrapped—looking at infinity
eating once, puking thrice
crouched in syringe-fear.
running her palm over the wistful face of that boy
the girl thinks deep within,
let me die but nothing should happen to him
ailing boys become suspicious of their lovers
they cannot read minds—these ailing boys.
***
Women
they were to pick-up Asia’s patience
Africa’s endurance
Europe’s sense of fashion
American glitziness
but they lost their bearings
they gleaned love from Asia
philosophy from Europe
Africa gave them uprightness
America, revolt
they lost all the competence of a good wife
and ended up as blemished lovers too.
Till Language Gives Us Words
my mind will brace me
countless dreams I will dream
squeezing my native power
to the final drop
I will love you.
whatever the yoke,
as long as language lives
there is complete freedom
***
Love
the Ganga’s
the sun’s
the harvest’s
the flowers’
my dialect’s
and
your
enchantment will not wane
however life goes
till the scent of your bosom lingers on my tongue
the heart will not break.
***
Rubber-Band on Socks
Golu of class I,
early-morning lone and shy
tiptoes tothe monitor of the second grade
and submits:
“Please, will you give me that rubber-band
from your plait?”
“Sir will spank.”
“Please, give, na?
Sir will not thrash girls, really he won’t,
My socks, they are slipsliding away.”
Elegy Written for the Champaks
Lout I was, lout I am, lout I will be
whether I say it or not
it will be plain from my face
wily, oily, roily if you say so sure
shall flash all thirty-two and endure
not of this world, custom made, bonafide
shall still study Hindi. Champak, certified.
_____________________________
कॉमरेड I
पूरी शाम समोसों पर टूटे लोग
दबाए पकौड़े, ब्रेड रोल
गटकी चाय पर चाय
और तुमने किया मेस की घण्टी का इन्तज़ार
अट्ठाइस की उम्र में आईना देखती
सूजी हुई आँखें
कुछ सफ़ेद बाल, बीमार पिता और रिश्ते
स्टूडियो की तस्वीर के लिए माँ का पाग़लपन
घर
एक बन्द दरवाज़ा
—
हमारी आँखों में
तुम हँसी हो
एक तनी हुई मुट्ठी
एक जोशीला नारा
एक पोस्टर बदरंग दीवार पर
एक सिलाई उधड़ा कुर्ता
चप्पल के खुले हुए फीते की कील
पॉलीसिस्टिक ओवेरियन सिण्ड्रोम
भी हो तुम चुपके से
___
यूँ ही गुज़रती है ज़िन्दगी
पोलित-ब्यूरो का सपना
महिला-मोर्चे का काम
सेमिनारों में मेनिफ़ेस्टो बेचते
या लाठियाँ खाते सड़कों पर
रिमाण्ड में कभी-कभी
अख़बारों में छपते
पर जो तकिया गीला रह जाता है कमरे में
बदबू भरा
उसे कहाँ दर्ज करें कॉमरेड ?
***
कॉमरेड II
टेप से नापकर 20 सेण्टीमीटर का पोल और उसका शरीर
बराबर हैं
तिस पर एक झलंगी शर्ट 90 के शुरूआती दिनों की
और जींस पुरातत्व-विभाग का तोहफ़ा
पैंचे की सिगरेट के आख़िरी कश के बाद भी
पराठे का जुगाड़ नहीं
तो ठहाके ही सही
सेकेण्ड डिवीजन एम० ए० होल-टाइमर
मानसिक रोगी हुआ करता था
पिछले महीने तक
दिवंगत पिता से विरासत में पार्टी की सदस्यता लेकर
निफ़िक्र खिलखिलाता
ये कॉमरेड
दुनिया की ख़बर है इसे
सिवाय इसके कि
रात बाढ़ आ गई है घर में
पन्द्रह दिनों से बैलेन्स ज़ीरो है !
***
उस लड़के की याद
तीन दिन की शेव में
हर लड़का हॉट लगता है
(ऐसा मेरा मानना है)
और जिम के बदले
अस्पताल में पड़ा हो हफ़्ते भर
तो आँखें दार्शनिक हो जाती हैं
पीली और उदास
जलती हुई और निस्तेज
बिना नमक की हँसी और सूखी मुस्कुराहटें
चले तो थक जाए
भरी शाम शॉल ओढ़ कर शून्य में ताके
एक बार खाए, तीन बार उल्टी करे
दुबक जाए इंजेक्शन के डर से
उस लड़के के उदास चेहरे पर हाथ फेरती लड़की
मन ही मन सोचती है
मैं मर जाऊँ पर इसे कुछ न हो
बीमार लड़के प्रेमिकाओं पर शक करने लगते हैं
मन नहीं पढ़ पाते बीमार लड़के
***
औरतें
उन्हें एशिया का धैर्य लेना था
अफ़्रीका की सहनशीलता
यूरोप का फ़ैशन
अमेरिका का आडम्बर
लेकिन वे दिशाहीन हो गईं
उन्होंने एशिया से प्रेम लिया
यूरोप से दर्शन
अफ़्रीका से दृढ़ता ली
अमेरिका से विद्रोह
खो दी अच्छी पत्नियों की योग्यता
बुरी प्रेमिकाएँ कहलाईं वे आख़िरकार
***
जब तक भाषा देती रहेगी शब्द
साथ देगा मन
असंख्य कल्पनाएँ करूँगी
अपनी क्षमता को
आख़िरी बून्द तक निचोड़ कर
प्यार करूँगी तुमसे
कोई भी बन्धन हो
भाषा है जब तक
पूरी आज़ादी है
***
प्यार
गंगा का
सूरज का
फ़सलों का
फूलों का
बोलियों का अपनी
और
तुम्हारा
मोह नहीं छूटेगा
जैसा भी हो जीवन
जब तक रहेगी गन्ध तुम्हारे सीने की जेहन में
मन नहीं टूटेगा ।
***
मोज़े में रबर
वन क्लास के गोलू सेकेण्ड ने
क्लास की मॉनीटर से
सुबह-सुबह अकेले में
शर्माते हुए
प्रस्ताव रखा —
अपनी चोटी का रबर दोगी खोल कर?
‘सर मारेंगे’
‘दे दो ना
सर लड़की को नहीं मारेंगे
मेरा मोजा ससर रहा है !’
***
चंपकों का प्रयाण गीत
चिरकुट था चिरकुट हूं चिरकुट रहूंगा
बोलूं चाहे न बोलूं
शकल से दिखूंगा
चेप कहे, चाट कहे, चंट कहे कोई
बत्तीसी निकाले हंस हंस सहूंगा
धरती का जीव नहीं ऑर्डर पर आया हूं
हिंदी पढ़ूंगा चंपक बनूंगा
____________________________