Lakshmidhar Malviya
(Gathering Shadows, Shamsher Bahadur Singh. Years covered: 1961-1975)
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ईमान गड़बड़ी में है दिल के हिसाब में
लिक्खा हुआ कुछ और मिला है किताब में
(Top Floor, Just Fit, 1961)
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कठिन प्रस्तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(Shamsher, the tenant, peeping: barsati above Just Fit Tailors, Allahabad, 1961]
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आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद
(Just Fit Tailors, Bahadurganj, Allahabad, 1961 )
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उसे बदलियों में भी पहचान लोगे
कि उस चांद-से मुँह पे’ हाला पड़ा पड़ा है
वो जुल्फ़ों में सब कुछ छुपाए हुए हैं
अंधेरा लपेटे उजाला पड़ा है
(Premlata Verma and Shamsher, 1961)
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मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार –
जिसके स्वर गीले हो गये हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है…
छप् छप् छप्व
(Neighbourhood, Just Fit, 1961)
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तू मेरे एकान्त का एकान्त है
मैं समझता था कि मेरा तू नहीं ।
(Shamsher, Sketch : Malayaj, 1961)
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जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
वही शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद
(Allahabad, 1962)
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सूरज
उगाया जाता
फूलों में:
यदि हम
एक साथ
हँस पड़ते।
(With Shrimati and Shri Naresh Mehta, their year old son Babul, an unnamed person and Shamsher, 1961)
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वरूणा के किनारे एक चक्रस्तूप है
शायद वहीं विश्व का केंद्र है
वहीं कहीं
ऐसा सुनते हैं।
(Sarnath: the dharmshala where Shamsher often lived during the first half of the 1960s)
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मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल
जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल
एक कण ।
(Delhi, 1971)
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दिल्ली बस-स्टैंड से ही कार्ड मिला था मुझको।
काश फिर लिखते – ‘वही है जो गिला था मुझको1।’
ताकि हम कहते कि ‘है जुल्म सरासर अब तो!’
(Delhi, 1971)
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काल,
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
(Delhi, 1961)
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कहाँ है
वो किताबें, दीवारें, चेहरे, वो
बादलों की इन्द्रधनुषाकार लहरीली
लाल हँसियाँ
कहाँ है ?
(Delhi 1971)
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हम अपने खयाल को सनम समझे थे,
अपने को खयाल से भी कम समझे थे!
होना था- समझना न था कुछ भी, शमशेर,
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे!
(Delhi, 1971)
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वाम वाम वाम दिशा,
समय साम्यवादी।
(With dear friend Mugisuddin Faridi and Shobha Singh, Delhi 1971)
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एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
(Delhi, 1975)
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[This set of photographs were first published in Jalsa, 2011. HUG is grateful to Asad Zaidi for making the volume available.]